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Chapter Analysis
Advanced13 pages • HindiQuick Summary
सामाजिक संस्थाएँ : निरंतरता एवं परिवर्तन के इस अध्याय में जातियों, उनके विकास, सहशिक्षण और परिवर्तनशीलता को विस्तार से समझाया गया है। यह भारतीय समाज में जाति के महत्व और उसके विभिन्न पहलुओं पर चर्चा करता है, और कैसे आर्थिक, सामाजिक, और सांस्कृतिक बदलाव इनको प्रभावित करते हैं। विख्यात समाजशास्त्री एम. एन. श्रीनिवास के विचारों पर जोर दिया गया है, जिसमें 'संस्कृतिकरण' और 'प्रबल जाति' जैसे सिद्धांत शामिल हैं।
Key Topics
- •जातिव्यवस्था और उसका सामाजिक प्रभाव
- •संस्कृतिकरण की प्रक्रिया
- •प्रबल जाति का उदय
- •सामाजिक संरचना में परिवर्तनशीलता
- •आरक्षण नीतियों का सामाजिक प्रभाव
- •क्षेत्रीय राजनीति में जाति की भूमिका
Learning Objectives
- ✓जातिव्यवस्था के मूल सिद्धांतों को समझना
- ✓संस्कृतिकरण के प्रभाव को पहचानना
- ✓सामाजिक संरचना में परिवर्तन के कारकों का विश्लेषण करना
- ✓आधुनिक भारतीय समाज में जातिव्यवस्था के अनुबंधों को समझना
Questions in Chapter
सामाजिक संरचनया में होने वाले परिवर्तन पारिवारिक संरचनया में किस प्रकार परिवर्तन लाते हैं?
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मातृवंश (matriliny) और मातृसत्तात्मक (matriarchy) में क्या अंतर है? व्याख्या कीजिए।
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Additional Practice Questions
जातिव्यवस्था का भारतीय समाज पर क्या प्रभाव पड़ा है?
mediumAnswer: जातिव्यवस्था ने भारतीय समाज में सामाजिक स्तरीकरण को बढ़ावा दिया और साथ ही कुछ समुदायों में असमानताएं भी पैदा की। हालांकि, इसमें बदलाव और सुधार के प्रयास भी समय-समय पर होते रहे हैं।
आरक्षण नीति का समाज पर क्या प्रभाव पड़ा है?
mediumAnswer: आरक्षण नीति ने कमजोर वर्गों को शिक्षा और रोजगार के जरिए मुख्यधारा में शामिल होने का मौका दिया, हालांकि इस नीति की समस्याएं और चुनौतियाँ भी हैं।
समाज में 'संस्कृतिकरण' की प्रक्रिया कैसे होती है?
mediumAnswer: 'संस्कृतिकरण' निम्न जाति के लोग उच्च जातियों की सांस्कृतिक गतिविधियों को अपनाते हैं ताकि उनकी सामाजिक प्रतिष्ठा में वृद्धि हो सके।
प्रबल जातियों का क्षेत्रीय राजनीति में क्या योगदान होता है?
hardAnswer: प्रबल जातियाँ क्षेत्रीय राजनीति में सामाजिक समर्थन और संघर्ष के माध्यम से एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं।
जातिव्यवस्था के उत्पत्ति के बारे में क्या मतभेद हैं?
hardAnswer: जातिव्यवस्था के उत्पत्ति के विषय में अलग-अलग मत हैं, जिनमें से कुछ इसे वैदिक काल की देन मानते हैं जबकि अन्य इसे बाद के सामाजिक-सीमाओं का परिणाम मानते हैं।